शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

इक खुदा चाहिए इस खुदा के लिए

मैं सफ़र कर रहा था
खुद से बिछुड़ने के लिए
ये आखिरी सफ़र था
सफ़र के लिए

मैं जिन्दगी भर
बेखुदी में ही जीता रहा
कोई खुदी ही नहीं थी
खुदी के लिए

कुछ रास्ते रो रहे थे
अपनी वीरानगी पर
उन रास्तों पर चल पड़ा में
रास्तों के लिए

मैं जिन्दा हूँ अब तक
मुझे क्या पता
जिन्दगी है जरूरी
जिन्दगी के लिए

आईने चोंधिया गये आज
उसे देख कर
अब चशमा है जरूरी
आइनों के लिए

मैं जिसे ढूंढ़ता था
उसका पता न चला
एक पता चाहिए था
पते के लिए

जख्म दिलके नासूर बन कर
जब बहने लगे
आंसू मेरे निकले
साथ बहने के लिए

क्यों मैंने नाखलक को
खुदा कह  दिया
इक दूसरा खुदा चाहिए
इस जहाँ के लिए

खुदाई क्या शै है
जो इसको बता दे
ऐसा खुदा चाहिए
इस खुदा के लिए

गुरु दयाल अग्रवाल


हम क्या हैं

                         मैं बहुत चिंतित हूँ
                         हम क्या थे
                         और क्या हो गए हैं                          
                         सरल रास्तों पर कहाँ खो गए हैं
                                                                                          
                        हम कुछ और हैं
                        अपने को समझते हैं कुछ और
                        स्वीकारते हैं कुछ और
                        दर्शाते हैं कुछ और
                        हम क्या हैं, हमें नहीं मालूम
                        हम अपने से बिलकुल अपरिचित हो गए हैं

                       मापदंड बनाये हमने अपने आदर्शों के
                       पूरे नहीं उतरे हम अपनी ही तराजू पर
                       हम पानी पर तैरते हुए टीन के खाली बंद डब्बे के समान
                                                   अन्दर से बिलकुल खोखले हो गए हैं

                        हे ज्योतिर्मये हम से हमारा साक्षात् करा दो
                        बहुत है अँधेरा दिया इक जला दो
                        आत्मा से उदभुद हरेक भाव पढ़ लें
                        पाठ कोई ऐसा हमको पढ़ा दो
                        आत्मचिंतन से हम विमुख हो गए हैं 
                        अब हम हम नहीं हैं कुछ और हो गए हैं  
    
                       मैं बहुत चिंतित हूँ
                       हम क्या थे
                       और क्या हो गए हैं
                       सरल रास्तों पर कहाँ खो गए हैं


गुरुदयाल अग्रवाल
                                      
                                             

आधा ही रहा हूँ

जिन्दगी के हर सफर  में
आधा ही हासिल रहा हूँ 
आधा ही मिला है पानी मुझको 
आधा मैं प्यासा रहा हूँ 
प्यार भी मुझको मिला तो 
बाँट कर आधा मिला 
आधा जिया है जीवन मैंने 
आधा मरणासन रहा हूँ 
धर्म कर्म का आचरण किया 
अहम को नहीं त्याग पाया 
आधा मैं ज्ञानी रहा हूँ
आधा अज्ञानी रहा हूँ 
बहुत किये हैं पुण्य मैंने 
पाप भी मैंने किये 
सम्पूर्ण ज्ञान के चक्षु खुले हैं 
आधी मर्यादा रहा हूँ 
क्या कोई अवधूत हूँ मैं
जो तुम्हें वशीभूत करता 
आधी अभिलाषा रहा हूँ 
आधी जिज्ञासा रहा हूँ 
बनकर अपना शेष 
मैं जिन्दगी जीता रहा 
आधा हूँ अवशेष अपना 
आधा मैं श्वंसित रहा हूँ  
                

कभी कुछ कहो हमसे


कभी कुछ तुम कहो हमसे
कभी तुमसे कहें हम कुछ
तभी तो बात बातों से निकल कर
अपने अंजाम तक पहुंचे

कभी दिल खोल कर तुम हंस पड़ो
मेरी किसी नादान हरकत पर
कभी मैं भी तुम्हारा नाम लेकर
गीत कोई गुनगुनाऊ

कभी दिल को बना कर साज मैं
छेड़ दूं कोई ग़ज़ल
कभी इस साज के तारों को तुम
कुछ इस तरह से झनझनाओ
कि स्वपन भी साकार हो कर
आँख फडफडाने लगें

कभी अहसास के झूले पर तुम
पेंग कुछ ऐसी भरो
कि दिलके सारे टाँके टूट जाएँ
और मैं आँखों में प्यास भर कर
चेतनाओं से अवकाश ले लूं

आओ कर दें कोई वार ऐसा
हम समय के पाँव पर
रह जाए वो अपनी जगह खड़ा का ही खड़ा
और अपलक पलकों से हमको
देखता रहे अवाक् सा


गुरु दयाल अग्रवाल




   

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

अभी तो रात बाकी है

अभी तो रात बाकी है बहुत कुछ बात बाकी है
अभी तो अनवरत देखा है अभी उन्माद बाकी है

चलो पूरी की पूरी लिखें आज प्यार की पोथी
समान्तक की समीक्षा का अभी अनुवाद बाकी है

न तुम कुछ कहो हमसे न हम तुम से कहेंगे कुछ
निश्वासों को अविराम चलने दो जब तक श्वांस बाकी है

कहाँ के प्राण किसके प्राण प्राणों की समस्या क्या
यहाँ हम डूबने बैठे हैं जब तक प्राण बाकी है

प्यार को आवाज दी है तो उठो प्यार अब करलो
देखें कितनी लगन है आज कितना प्यार बाकी है

प्यार मन से धुआं बनकर आँखों से टपकता है
सत्यम शिवम् सुन्दरम बनकर
अभी कर लो मनन
वक्त की सीमा नहीं है अभी तो रात बाकी है

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

जमीन का फरिश्ता

मैं क्या करूं शिकायत जमीन से आसमान से
मेरों ने मुझ को नोचा खरोंचा जाने कहाँ कहाँ से

मैं शमशान में खड़ा रह रह के सोचता था
एक छोटा सा कफन अपने लिए लाऊं तो लाऊं मैं कहाँ से

मेरे लिए थी जिन्दगी मौत से भी बदतर
बहुत शातिर थे वो लुटेरे मुझे लूटा नगाड़े बजा बजा के

अचानक जन्तर मन्तर पर आया जमीन का इक फरिश्ता
मुझको गले लगाया मिलाया मुझकों मेरे हिन्दुस्तान से

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

धरम की झूठी ज्वाला में

धरम की झूठी ज्वाला में
न जाने कितने अहसास जले
घर बार जले खलिहान जले
इंसानियत के सारे फरमान जले


ये आग अभी तक बुझी नहीं
आग के मलबे के भीतर
सिसक सिसक कर
हर मजहब के भगवान जले


जल जल कर सब कुछ ख़ाक हुआ
जो बचे वो सौ सौ बार जले
धर्म के ठेकेदारों बोलो
किस मजहब का फरमान है ये
जो इन्सान जले और फिर
मेरे और तुम्हारे भी भगवान जले

-गुरु दयाल अग्रवाल ६.७.२०१०