मंगलवार, 20 जुलाई 2010

धरम की झूठी ज्वाला में

धरम की झूठी ज्वाला में
न जाने कितने अहसास जले
घर बार जले खलिहान जले
इंसानियत के सारे फरमान जले


ये आग अभी तक बुझी नहीं
आग के मलबे के भीतर
सिसक सिसक कर
हर मजहब के भगवान जले


जल जल कर सब कुछ ख़ाक हुआ
जो बचे वो सौ सौ बार जले
धर्म के ठेकेदारों बोलो
किस मजहब का फरमान है ये
जो इन्सान जले और फिर
मेरे और तुम्हारे भी भगवान जले

-गुरु दयाल अग्रवाल ६.७.२०१०

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

ऋषभ उवाच: सृजनात्मक लेखन पर डॉ. गोपाल शर्मा : पाठ ५

ऋषभ उवाच: सृजनात्मक लेखन पर डॉ. गोपाल शर्मा : पाठ ५
दाता देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है और हमारे डा गोपाल शर्मा छप्पर फाड़ कर ही तो दे रहे हैं . लिखना एक कला है और डा साहब
कलाकार. सरस्वती माँ का प्रसाद तो बट रहा है prntu विदुषियों के अतिरिक्त कौन इसको पढ़ रहा है समझ रहा है. ये सच है लेखन की प्रतिभा जन्मजात होती है या नहीं होती है. इस में सुधार
तो हो सकता है परन्तु धरातल तो होना चाहिए ही. काश हममें ...! हाँ
डा साहब को बधाई और बहुत स्नेह पूर्वक. गुरु दयाल अग्रवाल

रविवार, 9 मई 2010

एक बूँद

एक बूँद

बूँद बूँद सागर भर रहा है
परन्तु
अश्रु बहुत है व्यथित
किसी के सम्मुख गिरूँ , क्यों गिरूँ
और क्यों पलकों के भीतर सूख कर
जीवन भर यों ही घुट घुट के मरूँ

आज चल पवन ऐसी
सागर तक मुझे ले जाईयो
इस जगत में आया हूँ
कुछ देकर जाना चाहता हूँ
और कुछ नहीं है पास मेरे
केवल यही इक बूँद है सागर के लिए
- गुरु दयाल अग्रवाल -