एक बूँद
बूँद बूँद सागर भर रहा है
परन्तु
अश्रु बहुत है व्यथित
किसी के सम्मुख गिरूँ , क्यों गिरूँ
और क्यों पलकों के भीतर सूख कर
जीवन भर यों ही घुट घुट के मरूँ
आज चल पवन ऐसी
सागर तक मुझे ले जाईयो
इस जगत में आया हूँ
कुछ देकर जाना चाहता हूँ
और कुछ नहीं है पास मेरे
केवल यही इक बूँद है सागर के लिए
- गुरु दयाल अग्रवाल -
डॉ. त्रिवेणी झा की कृति 'विविधा' की भूमिका
5 दिन पहले